-Prashant Das
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ग़ज़ब हुआ जो लौटकर मैं इस शहर आया
मेरा माज़ी मेरी ओर, किस कदर आया ।
जहाँ ख़्वाब थे, रूमानियत की आहें थीं
आज यूँ मेरे अश्क़ों का क्यूँ बहर आया?
वो साल और थे, दरिया भी कोई और-सा था
सहरा- से इन कूंचों में, बेख़बर आया!
गली की रोशनी में सुब्ह थी औ’ शाम अलग़
शाहराह जो आया तो हर पहर आया ।
कहाँ हैं मेरे हमनवाँ, कहाँ वो माशूक़ा?
ये वो शहर तो नहीं, जाने मैं किधर आया!
अजनबी दिखती पुरानी गलियों में
पुराना आशना दिखा, लिये मेहर आया ।
सेमल का वो दरख़्त, नाव काग़ज़ की,
बच्चा दिखा जिसमें मैं ख़ुद नज़र आया ।
उम्दा भाव।